प्रगति और पूर्णता

 

प्रगति

 

    प्रगति सृष्टि में भागवत प्रभाव का चिह्न है ।

 

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    प्रगति : वह कारण जिसके लिए हम धरती पर हैं ।

 

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    पार्थिव जीवन का उद्देश्य है प्रगति । अगर तुम प्रगति करना बन्द कर दो तो तुम मर जाओगे । प्रत्येक क्षण जो तुम प्रगति किये बिना गुजारते हो तुम्हारी कब्र की ओर एक और कदम होता है ।

 

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    जैसे ही तुम सन्तुष्ट हो जाते हो और किसी चीज के लिए अभीप्सा नहीं करते, तुम मरना शुरू कर देते हो । जीवन गति है, जीवन प्रयास है, वह आगे कूच कर रहा है, भावी रहस्योद्‌घाटनों और उपलब्धियों की ओर चढ़ रहा है । आराम करना चाहने से बकर खतरनाक कुछ नहीं है ।

 

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    तुम्हें हमेशा कुछ सीखना होता है, कुछ प्रगति करनी होती है और हर स्थिति में हम सबक सीखने और प्रगति करने का अवसर पा सकते हैं ।

११ सितम्बर, १

 

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    प्रगति : हर क्षण मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए जो कुछ तुम हो और जो कुछ तुम्हारे पास है उसे छोड़ने के लिए तैयार रहना ।

जून, १९५०

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    प्रगति का कोई अन्त नहीं ह ओर हर रोज, तुम जो कुछ करते हो उसे ज्यादा अच्छी तरह करना सीख सकते हो ।

६ अप्रैल, १९५४

 

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    यह न सोचो कि तुम क्या थे, केवल उसी के बारे में सोचो जो तुम होना चाहते हो ओर तुम निश्चय ही प्रगति करोगे ।

१ जून, १९५

 

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    पीछे मत देखो, हमेशा आगे देखो, तुम जो करना चाहते हो उसे देखो--तो तुम निश्चय ही प्रगतिशील होओगे ।

२ जून, १९५

 

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    आओ, हम अपने हृदयों में प्रगति की अग्नि को प्रज्ज्वलित रखें ।

जून, १९५४

 

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    जो आज नहीं किया जा सकता, निश्चय ही वह बाद में किया जायेगा । प्रगति के लिए किया गया प्रयास कभी व्यर्थ नहीं हुआ ।

जून, १९५

 

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    आओ, हम स्वयं प्रगति करें, औरों से प्रगति करवाने का यह सबसे अच्छा उपाय है ।

२३ जुलाई,५४

 

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    गतिरोध का अर्थ है सड़ांध ।

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    प्रगतिशील हुए बिना कोई उद्यम फल-फूल नहीं सकता ।

    हमेशा प्रगतिशील पूर्णता की ओर आगे बढ़ो ।

फरवरी, १५७

 

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    कोई संस्था प्रगतिशील हुए बिना जीवित नहीं रह सकती ।

    सच्ची प्रगति है हमेशा भगवान् के अधिक निकट आना ।

 

    हर गुजरता हुआ वर्ष पूर्णता की ओर नयी प्रगति की पहचान होना चाहिये ।

२१ फरवरी,५७

 

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    जो कुछ नया हो, रूढ़िवादी उसका विरोध करेंगे ही । अगर हम इस विरोध के आगे झुक जायें तो संसार कभी एक कदम भी आगे न बढ़ेगा ।

७ नवम्बर, १६१

 

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    जगत् इतनी तेजी से प्रगति करता ह कि हमें किसी भी क्षण हम जो कुछ जानते हैं उसे पीछे छोड़ देने के लिए तैयार रहना चाहिये ताकि हम ज्यादा अच्छी तरह जान सकें ।

३ मार्च,६३

 

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    विश्व के सतत आगे बढ़ते रहने में अभी तक जो कुछ प्राप्त हुआ है वह एक अधिक बड़ी उपलब्धि की ओर पहले कदम से अधिक नहीं है ।

 

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    हर बीतते वर्ष को होना चाहिये--और वह अनिवार्य रूप से होता है--एक नयी विजय ।

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    हर व्यक्ति और हर चीज हमेशा प्रगति कर सकते हैं । और मैं हमेशा सम्भव सुधार के लिए यह जानते हुए काम करती रहती हूं कि बड़ी-से-बड़ी कठिनाई हमेशा बड़ी-से-बड़ी विजय लाती है और मुझे विश्वास है कि इसके लिए तुम मेरे साथ हो ।

 

पूर्णता

 

    मिलने-जुलने से तुम पूर्ण नहीं बन जाओगे-पूर्णता को अन्दर से आना चाहिये ।

१ मार्च, १३६

 

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    पूर्णता पराकाष्ठा या अति नहीं है । वह सन्तुलन और सामञ्जस्य है ।

 

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    पूर्णता कोई शिखर नहीं है, वह कोई पराकाष्ठा नहीं है । कोई पराकाष्ठा है ही नहीं । तुम जो भी करो, हमेशा उससे अच्छा करने की सम्भावना रहती है । और प्रगति का अर्थ यही है--ज्यादा अच्छे की सम्भावना ।

 

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    पूर्णता शाश्वत है , जगत् का प्रतिरोध ही उसे क्रमिक प्रगतिशील बनाता है

 

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    जब नीचे की ग्रहणशीलता ऊपर से आती हुई उस क्ति के बराबर हो जाये जो अभिव्यक्त होना चाहती ह तो कहा जा सकता हे कि पूर्णता प्राप्त हो गयी ह, यद्यपि वह प्रगतिशील बनी रहती है ।

३ जनवरी, १९५

 

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    जब तक तुम स्वयं पूर्ण न होओ तब तक तुम ओर किसी से पूर्ण

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होने की आशा नहीं कर सकते । और पूर्ण होने का अर्थ है ठीक वैसा होना जैसा प्रभु चाहते हैं ।

३ जून,९५

 

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    पूर्णता वह सब है जो हम अपनी उच्चतम अभीप्सा में होना चाहते हैं । १ अक्तूबर, १६६

 

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    पूर्णता की प्यास : सतत और बहुविध अभीप्सा ।

 

सफलता  

 

    लक्ष्य को कभी न भूलो । अभीप्सा करना कभी बन्द न करो, अपनी प्रगति में कभी न रुको और निश्चय ही तुम सफल होओगे ।

 

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    सफलता की शक्ति : उन लोगों की शक्ति जो अपने प्रयास को जारी रखना जानते हैं ।

 

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     केवल कोशिश करना काफी नहीं है, तुम्हें सफल होना चाहिये ।

 

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     तुम्हें केवल सफलता के लिए कभी कोशिश न करनी चाहिये ।

७ अप्रैल, १९५

 

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    (किसी ने सुझाव दिया कि आश्रम की अमुक पत्रिका के ग्राहकों से उनकी प्रतिक्रिया और उनकी आशाएं और सुझाव मांगे जायें तो वह

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    अधिक लोकप्रिय बन सकेगी । जब यह बात माताजी को बतायी गयी तो उन्हांने उत्तर दिया : )

 

   चलो, हम जितने अधिक ओछे बन सकते है बन जायें । तब सफलता अवश्य आयेगी ।

१६ जनवरी, ९५५

 

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    वह सब जो जनता को खुश करने के लिए और सफलता पाने के लिए किया जाता है छा होता है और मिथ्यात्व की ओर ले जाता है । इस विषय पर अधिक गहरा दृष्टिकोण संलग्न है ।

 

    आशीर्वाद ।

१८ जनवरी, ६५

 

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    तुम्हें जो परिस्थिति दी गयी है उसका सत्य के पथ पर अच्छे-से-अच्छा उपयोग करो, उसका लाभ उठाना और बात है ।

 

    सारी सफलता तुम्हारे सत्य के परिमाण पर निर्भर है ।

 

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    सफलता पूरी तरह सचाई पर निर्भर है ।

२७ जून, १७२

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    १ यह रहा एक उपाय उन लोगों के लिए जो मिथ्यात्व से पिंड छुड़ाने के लिए उत्सुक हैं

 

   अपने-आपको खुश करने की कोशिश न करो, औरों को खुश करने की कोशिश भी न करो । केवल प्रभु को खुश करने की कोशिश करो ।

 

   क्योंकि केवल वे ही सत्य हैं । हम सब, हममें से हर एक, भौतिक शरीर में मनुष्य, प्रभु को छिपाने वाला मिथ्यात्व का लबादा है ।

 

   चूंकि वे ही अपने प्रति सच्चे हैं इसलिए हमें उन्हीं पर एकाग्र होना चाहिये, मिथ्यात्व के लबादों पर नहीं ।

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    अतिमानसिक कार्यों में सफलता : धैर्यपूर्ण परिश्रम और पूर्ण निवेदन का परिणाम ।

 

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    आध्यात्मिक सफलता है भगवान् के साथ सचेतन ऐक्य ।

 

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    सफलता में से गुजरना दुर्भाग्य में से गुजरने की अपेक्षा अधिक कठिन अग्नि-परीक्षा है ।

 

    सफलता की घड़ी में मनुष्य को अपने-आपसे ऊपर उठने में अधिक जागरूक रहना चाहिये ।

 

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    जैसे ही तुम यह सोचो कि तुम्हें किसी चीज में सफलता मिल गयी है, कि विरोधी शक्तियां उस पर आक्रमण करके उसे बिगाड़ने का निश्चय कर लेती हैं । और फिर जब तुम सफलता की बात सोचते हो तो अपनी अभीप्सा में भी ढीले पड़ जाते हो और जरा-सी ढील भी सारा खेल बिगाड़ देने के लिए काफी है । सबसे अच्छा यह है कि उसके बारे में सोचो मत, बस अपना कर्तव्य पूरा करते जाओ । लेकिन कभी-कभी जब तुम अपनी त्रुटियों और असफलता के बारे में सोचते जाते हो और उदास हो जाते हो तो सफलता को अपनी नाक के आगे रखकर कहो, ''यह देखो ।''

 

विजय

 

    हम शान्ति के लिए नहीं, विजय के लिए आये हैं क्योंकि विरोधी शक्तियों द्वारा शासित जगत् में विजय को शान्ति से पहले आना चाहिये ।

फरवरी, १३०

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   तुम्हें दो चीजें कभी न भूलनी चाहियें : श्रीअरविन्द की अनुकम्पा और दिव्य मां का प्रेम । इन दो चीजों के साथ तुम शत्रुओं को निश्चित रूप से पराजित करने और चिरस्थायी विजय पाने तक लगातार, धैर्य के साथ युद्ध करते रहोगे ।

 

   बाहर साहस, भीतर शान्ति और भागवत कृपा पर मूक अटल विश्वास ।

१९ मई, १९३३

 

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   शत्रु के बारम्बार आक्रमणों के सामने तुम्हें अपनी श्रद्धा को अक्षुण्ण बनाये रखना और विजय पाने तक डटे रहना चाहिये ।

२ फरवरी, १९४२

 

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   भगवान् की परम विजय निस्सन्देह, निश्चित हे ।

६ अप्रैल, १९४२

 

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   विजय निश्चित है और इस निश्चिति के साथ धैर्यपूर्वक हम कितने ही गलत सुझावों और विरोधी आक्रमणों का सामना कर सकते हैं ।

 

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   विजय की निश्चिति अधिकाधिक ऊर्जा के साथ अनन्त धैर्य प्रदान करती हे ।

 

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   आओ, हम सच्ची, निष्कपट अभीप्सा के साथ सतत सद्‌भावना रखें, विजय निश्चित है ।

१९ मई १९५४

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    बीते कल की विजय आगामी कल की विजय की ओर एक सोपान मात्र है ।

७ सितम्बर, १९५४

 

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    विजय की निश्चिति हमारे विश्वास की सचाई में है ।

अक्तूबर, १९५४

 

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    ऐसी कोई चीज नहीं जो अन्तत: भगवान् की सम्पूर्ण विजय की ओर ले जाने का यन्त्र न हो ।

जुलाई १९५६

 

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    मधुर मां

 

     आपने  लिखा है :

 

      ''आदर्श बालक होता है । उसे चाहे बहुत बार पराजित होना पड़े, वह हमेशा अन्तिम विजय के लड़ता रहता है ।''

 

      यहां ''अन्तिम विजय'' का क्या मतलब है ? विजय और पराजय क्या है ? हमारे खेलकूद में ये किस चीज की प्रतीक हैं ।

 

मैं खेलों में विजय की बात नहीं कर रही थी । मैं कर रही थी अज्ञान और मूढ़ता पर चेतना की विजय की बात ।

१९ मार्च,  १९७०

 

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     भागवत विजय सभी विध्न-बाधाओं को पार कर लेगी ।

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